सीमावर्ती राज्यों में अवैध प्रवास को रोकने के लिए मजबूत नीतिगत उपायों की आवश्यकता: उच्चतम न्यायालय

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उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए की संवैधानिक वैधता बरकरार रखते हुए अवैध आव्रजन पर नियंत्रण लगाने और सीमा विनियमन को बढ़ाने के लिए अधिक मजबूत नीतिगत उपायों की आवश्यकता जताई।

नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए बांग्लादेश से एक जनवरी, 1966 को या उसके बाद लेकिन 25 मार्च, 1971 से पहले असम में प्रवेश करने वाले प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्रदान करती है।

प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश, जे बी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की संविधान पीठ ने अलग-अलग फैसले सुनाए।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने अपने और न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश तथा न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की ओर से लिखे फैसले में कहा, ‘‘25 मार्च, 1971 के बाद अवैध प्रवासियों के अनुमानित आगमन की जांच के संबंध में, भारत संघ ऐसे आगमन की गुप्त प्रकृति के कारण सटीक आंकड़े प्रदान करने में असमर्थ है। यह अवैध आवाजाही को रोकने और सीमा विनियमन को बढ़ाने के लिए अधिक मजबूत नीतिगत उपायों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।’’

फैसले में कहा गया, ‘‘इसके अतिरिक्त, यह खुलासा किया गया कि विदेशी न्यायाधिकरणों के समक्ष लगभग 97,714 मामले लंबित हैं, और लगभग 850 किलोमीटर की सीमा बिना बाड़ के या अपर्याप्त निगरानी के है।’’

न्यायमूर्ति कांत ने कहा कि 1971 के बाद अवैध आव्रजन को प्रतिबंधित करने के लिए धारा 6ए का उद्देश्य उचित रूप से प्रभावी नहीं हुआ है।

उन्होंने प्रधान न्यायाधीश के साथ सहमति जताते हुए 184-पृष्ठ के अलग फैसले में लिखा, ‘‘हालांकि धारा 6ए ने इस कट-ऑफ तिथि से पहले आने वाले प्रवासियों को विशेष रूप से नागरिकता के अधिकार प्रदान किए, फिर भी भारत के विभिन्न सीमावर्ती राज्यों के माध्यम से प्रवासियों का निरंतर आगमन होता है। सीमाओं और अधूरी बाड़बंदी के कारण, यह निरंतर प्रवास एक महत्वपूर्ण चुनौती पेश करता है।’’

न्यायालय ने कहा कि अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की पहचान, पता लगाने और निर्वासन के लिए सर्बानंद सोनोवाल फैसले में जारी निर्देशों को अवैध प्रवासियों को निर्वासित करने के उद्देश्य से लागू किया जाना आवश्यक है।

शीर्ष अदालत ने कहा कि असम में अवैध आप्रवासियों या विदेशियों की पहचान और पता लगाने के लिए गठित वैधानिक तंत्र और न्यायाधिकरण अपर्याप्त हैं। अदालत ने कहा कि आव्रजन और नागरिकता संबंधी कानूनों के क्रियान्वयन को अधिकारियों के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता, इसलिए अदालत की निरंतर निगरानी जरूरी है।